गोरखों के बिना कैसी लगेगी फौज?

विवेक शुक्ला फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने एक बार गोरखों की युद्ध क्षमता के बारे में कहा था- 'यदि कोई कहता है कि उसे मौत से डर नहीं लगता, तो वह या तो झूठ बोल रहा है या फिर वह गोरखा है।' गोरखा सैनिकों की बहादुरी को इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं मिल सकता। उनकी अतुलनीय वीरता के चलते भारतीय सेना में उन्हें बड़ी संख्या में भर्ती किया जाता रहा है। भारतीय सेना को शक्तिशाली बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा है। लेकिन निकट भविष्य में भारतीय सेना गोरखा सैनिकों से वंचित हो सकती है। यह आशंका इसलिए बन रही है क्योंकि नेपाल सरकार वहां के गोरखा जवानों को भारतीय सेना में शामिल होने से रोकने के एक प्रस्ताव पर विचार कर रही है। 

गोरखों के बिना कैसी लगेगी फौज?
गोरखों के बिना कैसी लगेगी फौज?
नेपाल की एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय और ब्रिटिश सेना सहित किसी भी बाहरी सेना में नेपाली गोरखों की भर्ती पर रोक लगाने की अनुशंसा की है। यदि नेपाल सरकार इस रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल करती है तो भारतीय सेना के लिए यह एक बड़ी क्षति होगी। अभी भारतीय सेना की गोरखा राइफल्स में करीब 25 हजार नेपाली गोरखा सैनिक हैं। कुल मिलाकर गोरखा राइफल्स में नेपाली गोरखों की भागीदारी 70 फीसदी है। शेष 30 फीसदी में देहरादून, दार्जिलिंग और धर्मशाला के स्थानीय भारतीय गोरखे शामिल हैं। इसके अतिरिक्त रिटायर्ड गोरखा जवानों और असम राइफल्स में गोरखों की संख्या करीब एक लाख है। 

मेजर जनरल (रिटायर्ड) शंकर प्रसाद कहते हैं कि 'भारतीय सेना और नेपाली गोरखों के बीच का रिश्ता अटूट है। गोरखा सैनिकों ने भारतीय सेना की महान सेवा की है। इनकी भर्ती के लिए नेपाल में हर साल भारतीय सेना की तरफ से भर्ती कैंप आयोजित किए जाते हैं। सेना का एक पेंशन अधिकारी स्थायी रूप से नेपाल में रहकर रिटायर्ड नेपाली सैनिकों के पेंशन संबंधी मसलों को देखता-हल करता है। ताजा स्थिति यह है कि हर साल भारतीय सेना करीब 1200-1300 नेपाली गोरखों को अपनी कतारों में शामिल करती है। भारतीय सेना की सेवा से रिटायर हो गए सैनिकों और उनकी विधवाओं के लिए हर साल लगभग 1250 करोड़ रुपए पेंशन के रूप में भेजे जाते हैं। अपने पूर्व सैनिकों के लिए भारत सरकार नेपाल के प्रमुख शहरों में निरंतर हेल्थ कैम्प भी आयोजित करती है।' 

भारतीय सेना में नेपाली सैनिकों की भर्ती 1947 में भारत, नेपाल और ब्रिटेन के मध्य हुई त्रिपक्षीय संधि के प्रावधान के तहत की जाती है। गोरखा शब्द की उत्पत्ति हिन्दू संत गुरु गोरखनाथ से हुई है। गोरखा नेपाल के पूर्वी और पश्चिमी भागों के भूमिपुत्र हैं। गोरखा सैनिकों को अंग्रेजों ने अपनी फौज में 1857 से पहले ही रखना शुरू कर दिया था। 1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने ब्रिटिश सेना का साथ दिया था। अगर आप चाहें तो कह सकते हैं कि इनका यह श्याम पक्ष है। उस समय गोरखा ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए अनुबंध पर काम करते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने भी इन्हें अपनी सेना में रखा। हालांकि नेपाल से आने वाले सभी नेपाली भाषी जवानों को गोरखा कहा जाने लगा है, मगर सचाई कुछ और है। गोरखा वे ही हैं जो लिंबू, थापा, मगर वगैरह जातियों से संबंध रखते हैं। इन सभी गोरखा जातियों की अपनी अलग-अलग बोलियां हैं। इन बोलियों के स्वरों में ही नहीं, इनके व्यंजनों में भी भारी असमानता है। 

अंग्रेजों के लिए गोरखों ने दोनों विश्व युद्धों में अपने अप्रतिम साहस और युद्ध कौशल का परिचय दिया। पहले विश्व युद्ध में दो लाख गोरखा सैनिकों ने हिस्सा लिया था। इनमें से करीब 20 हजार ने रणभूमि में अपने प्राण गंवाए। दूसरे विश्वयुद्ध में तो लगभग ढाई लाख गोरखा जवान सीरिया, उत्तर अफ्रीका, इटली और ग्रीस के अलावा बर्मा के घने जंगलों में भी लड़ने गए थे। उस जंग में 32 हजार से अधिक गोरखों ने वीरगति प्राप्त की थी। भारत के लिए भी गोरखा जवानों ने पाकिस्तान और चीन के खिलाफ हुई सभी लड़ाइयों में शत्रु के सामने अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया था। गोरखा रेजिमेंट को इन युद्धों में अनेक महावीर चक्र और कुछ परम वीर चक्र भी प्राप्त हुए। 

जानकारों का मानना है कि भारतीय सेना में नेपाली गोरखों के भर्ती होने पर रोक लगाना नेपाल सरकार के लिए भी आसान नहीं होगा। वहां के गोरखा सैनिक भारतीय सेना में भर्ती होने से इसलिए भी पीछे नहीं हटते क्योंकि यहां उन्हें बराबरी का हक मिलता है। साथ ही, भारत के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों के चलते भी नेपाली गोरखों की भारतीय सेना में भर्ती होने की इच्छा रहती है। बावजूद इसके, भारत सरकार को इस मुद्दे को राजनयिक स्तर पर नेपाल के साथ अविलंब उठाना चाहिए, ताकि सारा मामला बिगड़ने से पहले ही सौहार्दपूर्ण माहौल में सुलझ जाए। मेजर जनरल शंकर प्रसाद कहते हैं, 'नेपाली गोरखा के जीवन का मूलमंत्र है, कायर बनकर रहने से मरना बेहतर है। इस तरह के शूरवीरों से वंचित होना भारतीय सेना कभी नहीं चाहेगी।' 

Source:navbharattimes

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